लेखमाला की अन्तिम मणियाँ – राजेन्द्र जिज्ञासु ‘परोपकारी’मासिक के संवत् १९६४ के अंकों में वेद विषय पर गोस्वामी घनश्याम जी मुलतान निवासी की एक महत्त्वपूर्ण लेखमाला प्रकाशित हुई थी। इस लेखमाला की अन्तिम मणियाँ हम खोज पाये हैं।
इस लेखमाला के लेखक गोस्वामी घनश्याम अपने समय के जाने-माने विद्वान् थे। आप आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु वेद के एवं ऋषि दयानन्द के बड़े भक्त थे। स्वामी वेदानन्द जी महाराज भी कुछ समय आपके पास मुलतान में पढ़े थे।
आपने काशी शास्त्रार्थ में हार-जीत के विषय में सन् १८७९ में पं. बालशास्त्री से पूछा कि आप ठीक-ठीक बताओ कि सन् १८६९ के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ में आप जीते अथवा स्वामी दयानन्द?
पं. बाल शास्त्री का उत्तर पं. लक्ष्मण जी रचित ऋषि-जीवन के पृष्ठ २८१-२८२ पर पाठक पढ़ें। बाल शास्त्री जी का कथन था कि हम कौन उस वीतराग योगनिष्ठ ब्रह्मचारी को पराजित करने वाले? गोस्वामी जी बाल शास्त्री के शिष्य थे।
गोस्वामी जी के मुख से सुने बाल शास्त्री के शब्द स्वामी वेदानन्द जी ने अपनी पठनीय पुस्तक ऋषि बोध कथा में दिये हैं। प्रकाशन से कई वर्ष पूर्व स्वामी वेदानन्दजी ने व्याख्यानमाला के रूप में यह सारी पुस्तक कादियाँ में सुनाई थी।
उस प्रकाण्ड वैदिक विद्वान् की ये वेद विषयक लेखमाला परोपकारी के पाठकों के सामने प्रस्तुत है।
पं. बाल शास्त्री अपने शिष्यों से प्रायः यह कहा करते थे, ‘‘सत्पथ पर चलना चाहो तो दयानन्द के बताये पथ पर चलो, वह पथ सत्य एवं निर्भ्रान्त है।’’
अंक ६ परोपकारी।
अश्विन १९६४
वेद।
पहिले कहा गया है कि विद्, विद्लृ धातु से वेद शब्द बनता है, उसका अर्थ सत्ता, ज्ञान तथा लाभ है। वेद में उक्त तीनों अर्थों में वेद व्यवहृत हुआ है और ब्राह्मणादि ग्रन्थों में ऋगादि चार पुस्तकों का नाम भी वेद कहा है। यहाँ अब प्रश्न होता है, धात्वर्थ के अनुसार चारों वेद में किसकी सत्ता, ज्ञान और लाभ का वर्णन है? इसके उत्तर को विचारने के लिये उस बात को प्रथम सम्मुख रखना है, जहाँ कहा है कि ऋगादि वेद त्रिकाण्ड अर्थात् कर्म, उपासना, ज्ञान के प्रतिपादक है, परन्तु आधुनिक महीधरादिकृत वेदार्थ पर जब दृष्टि जाती है तो यही कहना पड़ता है कि वेद में केवल कर्म का आदेश है और वह कर्म केवल अग्नि, इन्द्र, सूर्यादि कल्पित देवों के लिये उपदिष्ट है, इसलिये मिस्टर मैक्समूलर आदि साहब कहते थे कि वेदों में ईश्वर का वर्णन नहीं, किन्तु देवपूजा, मूर्ति पूजा और तत्कालीन कहावतें लिखी हैं।
इसका जब आलोचन करते हुए प्रथम उक्त त्रिकाण्ड अर्थात् कर्म उपासना ज्ञान ही सूचित कर रहे हैं कि उक्त वेदों में ईश्वर की उपासना और ज्ञान का उपदेश भी है, पुनः महीधरादि जो कर्मवादी थे, ज्ञान से विमुख थे, उनके पूर्वज स्वामी शंकराचार्य ने ईशोपनिषद् जो यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, उसको ईश्वरीय विषय में दर्शाया है। पुनः उन महीधरादि आधुनिक लोकों के अर्थ की क्या गणना है?
सर्वे वेदाः यत्पदामामनन्ति (कठो. २/१५) उपनिषद् कहते हैं कि परमात्मा पद का वर्णन करनेवाले सब वेद हैं फिर मनुजी लिखते हैं कि ‘‘वेदोऽखिलो धर्म्ममूलम्’’ (मनु. २/६) जितने धर्म हैं, वह सब वेद से प्रगट हुए हैं एवं महामुनि पतञ्जलि भी लिखते हैं कि ‘‘धर्म्मः वेदोऽध्ययः’’ (महाभाष्य १/१/१/१) वेद धर्म्म हैं, इन उपनिषद्, मनुस्मृति और महाभाष्य के प्रमाण से साफ है कि पुराकाल में वेद में ईश्वर धर्म्म आदि सब प्रभुता की विद्यता मानी जाती थी। पुनः यह क्योंकर मान्य हो कि वेद में ईश्वर का विषय नहीं केवल कर्म ही हैं, क्योंकि पूर्वोक्त प्रमाणों से साफ है कि वेद में ईश्वर का ज्ञानादि भी विद्यमान है।इसकी पुष्टि के लिये कतिपय आधुनिक पण्डितों के लेख से दिखलाया जाता है कि धात्वर्थ के अनुसर वेदार्थ में धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पदार्थों में धर्म्म की सत्ता, ज्ञान और लाभ का अर्थ लिया गया है
– ‘‘विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते वा एभिर्धर्मादि पुरुषार्था इति वेदाः’’ बह्वृक् प्रातिशाख्यवृत्युपक्रमाणिका में विश्वामित्र लिखते हैं कि जिसने धर्म्म पुरुषार्थ जाने जाते, विदित होते वा प्राप्त होते हैं, उनका नाम वेद है। विद्ल् असुम्= विदल्लेतत् लभ्यतेवाऽनेन धर्म्मादि इति वेदाः। ऐसा निघण्टु टीकाकार ने लिखा है। इस प्रकार स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी भी वेद भाष्य भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘विद् ज्ञाने, विद्सत्तायां, विद्लृ लाभे, विद् विचारणे, एतेभ्यो हलश्चेति सूत्रेण करणाधिकरणकारकयोर्घञ् प्रत्येये कृते वेदशब्दः साध्यते।विदन्ति, जानन्ति, विद्यन्ते, भवन्ति, विदन्ते, विन्दते,लभन्ते, विदन्ते, विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्याः यैर्र्र्येषुवा तथा विद्वांसश्व भवन्ति ते वेदाः’’ (वेद भाष्यम्) जिनमें सब सत्यविद्या हैं और जिनसे सब सत्यविद्या लोक जानते, प्राप्त करते, विचारते और जिनको जानने से विद्वान् हो जाते हैं, वह वेद है।।
(प्रश्न) पूर्व सब प्रमाण से यही पाया जाता है कि वेद में कर्म, उपासना, ज्ञान और धर्म्मादि चारों पदार्थों का वर्णन है और स्वामी दयानन्द जी ने जो वेदों में सब सत्यविद्या है-ऐसा कहा है इसमें कोई पुरानी साक्षी भी है?
(उत्तर) हाँ, है देखिये। मनुजी आज्ञा करते हैं कि ‘‘सर्वे वेदात्प्रसिध्यति’’ (मनु. १२/१६) सर्व अर्थात् विद्या आदि सब कुछ वेद से लिया जाता है।
(प्रश्न) यहाँ विद्या शब्द का साक्षात् व्यवहार नहीं किया?
(उत्तर)‘‘धृतिः……विद्यां’’ मनुस्मृति में जहाँ धृति से अक्रोध तक धर्म के दश लक्षण लिखे हैं, उनमें से विद्या भी एक लक्षण साफ इन (विद्या) शब्दों में लिखा है और (मनु. २/६) इस श्लोक में वेद को धर्म का मूल कहा है यह साक्षात् प्रमाण है कि वेद में विद्या वर्णन है।।
अङ्क ७ परोपकारी कार्त्तिक १९६४ वि.
वेद।।
(गताङ्क से आगे)
चर्मनेत्र से ज्ञाननेत्र भिन्न होते हैं-इस जनश्रुति में यह अर्थ निकलता है कि विद्या मानो ज्ञान का मित्र है। जिसकी विद्या की आँखें उत्पन्न हो जावें, वहीं विद्वान् हो जाता है और मनुजी कहते हैं कि ‘‘पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्’’ (मनु. १२/१) पितृदेव मनुष्यों का वेद ही नेत्र है। यह लोक वेद के जानने से विद्वान् हुए हैं।
लोक व्यवहार भी यही विदित कर रहा है कि प्रमाण के जानने से मनुष्य विद्वान् हो जाता है और आपस्तम्ब गृह्यसूत्र में लिखा है कि ‘‘त्रैविद्या वृद्धानान्तु वेदाप्रमाणमितिनिष्ठा’’ (आ.२/९/३/९) तीनों विद्या में जो बड़े हुए हैं, उनके लिये वेद ही प्रमाण है, यूँ कहिये कि वेदरूप प्रमाण से मनुष्य विद्या में वृद्ध हो सकता है। यहाँ यह जतलाना अनुपयोगी नहीं होगा कि वेद के अर्थ समझने के लिये जैसे व्याकरणादि की आवश्यकता होती है वैसे योग की भी आवश्यकता है, क्योंकि ईश्वर ज्ञानस्वरूप है और वेद उसका ज्ञान है उसके जानने के लिये योग ही एकमात्र एकान्त उपाय है। इस बात को आगे वर्णन किया जावेगा कि वेद के अर्थ जानने के लिये योग की भी आवश्यकता है यहाँ तो इसकी सूचना करनी ही थी। यदि यह नहीं कहा जाता तो फिर प्रश्न उठता कि जब वेद में सब विद्या है, उससे प्रकट क्यों नहीं करते? इसके उत्तर में इतना निवेदन करना पर्य्याप्त होगा कि योग युक्त पुरुष अब भी ऐसा कर सकता है और पुराकाल में जितने उपनिषद्कार वदरीनाचार्य्यादि ऋषि मुनि विद्वान् हुए हैं, उन सबका इतिहास कहता है कि उनको सब विद्या वेद के सहारे से प्राप्त हुई थी।
वह वेद में से अनेक विद्या प्रकट कर गये हैं। अब भी जो उनके समान होगा, वह वेद से विविध विद्या का प्रकाश कर सकता है। जब से वेद का पठन-पाठन छूट गया है, और योग से विमुखता हो गई है, तब से यहाँ विद्योन्नति का अभाव हो गया है। अब उचित है कि प्रथम वेद के लक्षण को हम जानें।।
अंक आठ
परोपकारी मार्गशीर्ष से सं. १९६४ वि.
वेद।।
(गताङ्क से आगे)
पहिले वेदव्युत्पत्ति विषय में कहा गया है कि वेद का अर्थ लाभ, जानना, ज्ञान, सत्ता और विचार है। इन अर्थों को सृष्टि में किस प्रकार चरितार्थ तथा व्यवहार में लाया गया है, यह अब कहना है, क्योंकि ‘‘लक्षणाप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः’’ चीज की अस्ति उसके लक्षण और प्रमाण से जानी जाती है, अतएव विचारना है कि जगत् ने वेद पदार्थ को कौन से लक्षण और प्रमाणों में चरितार्थ किया है? पूर्वलिखित लेखों में जहाँ ‘विद् व विद्ल्’ धातु से वेद पद को सिद्ध किया है, साथ उसके विष्णुमित्र आदि महाशयों ने ‘‘धर्म्म, अर्थ, काम, मोक्ष’’ इन चार पदार्थों के ज्ञान और प्राप्ति के लिये वेद के लक्षण दिखलाये हैं और यजुर्वेद में प्रमाण दिया है कि-
‘वेदाहमेतं पुरुषम्’ (यजु. २१) जिसके जानने से मोक्ष प्राप्त होता है, उस परमात्मा को जान। ऐसा जानना ‘वेद’ पद से प्रमाणित है और मनुजी कहते हैं कि-
श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्म्मस्य लक्षणम्।। – (म. २/१२)
धृतिःक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म्मलक्षणम्।। – (म. ६/६)
जो परमात्मा से ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसको श्रुति कहते हैं, फिर उसका ऋषि लोगों ने वेद पर जैसा चिन्तन् स्मरण किया है और जिसको अपने सदाचरण में आचरित कर दिखलाया है, जो आत्मा के वास्तविक प्रिय हैं, उसका नाम धर्म्म है। प्रश्न होगा कि वे कौन-सी बातें हैं जो श्रुति में कही ऋषियों ने प्रकट की तथा करके दिखलाई और अब भी हम जिनको प्रिय अनुभव कर सकते हैं? इसके उत्तर में फिर मनुजी आज्ञा करते हैं कि वे संक्षेपतया दश लक्षण हैं। वे यह हैं-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध। यह धृति आदिक भाव प्रत्येक आर्य्य हिन्दू, मुसलमान, जैन, ईसाई, आस्तिक और नास्तिक सबको उत्तम और प्रिय लगते हैं।
जब तक किसी मनुष्य व प्राणी को विशेष स्वार्थ पक्ष= वास्ता नहीं पड़ता, तब तक कोई अधीर नहीं होता। कोई किसी से क्रोध अभिमान नहीं करता। इससे स्पष्ट है कि आत्मा मात्र का धृति आदिक स्वाभाविक धर्म्म है और अधीरता आदि कृत्रिम धर्म्म है, इसलिये कृत्रिम कहीं-कहीं त्याज्य समझे जाते हैं। इस धर्म्म के बारे में मनुजी कहते हैं कि- श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयः (म. २/१०) वेदोऽखिलोधर्म्ममूलम् (म. ६) श्रुति जिसको ऋग्, यजुः, साम, अथर्व पुस्तक कहते हैं, वह वेद है और उनमें मूलरूप तथा धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध सब धर्म्म का वर्णन है। ‘‘लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्’’ जिससे जाना जाता है, उसको लक्षण कहते हैं, अतएवं वेद का जानना धृति आदि से हो सकता है, जिसमें धृति आदि का वर्णन है, वही वेद है। प्रश्न होगा कि यदि धृति आदि दूसरी पुस्तकों में वर्णित हो क्या वह भी वेद होंगे? उत्तर यह होगा कि वह वेद के धृति आदि के आदाय को कहने वाले हैं वेद नहीं, प्रश्न होगा कि ऐसी-ऐसी व्यवस्था किसी ने पहिले भी कही हैं, उत्तर है कि हाँ! मनु कहता है कि- श्रुतिस्तु वेदोविज्ञेयो धर्म्मशास्त्रन्तुवै स्मृतिः (म. २/१०) जो परमात्मा से ऋषियों ने सुना है, उसको वेद कहते हैं और उसको जिन पुस्तकादि में ऋषियों ने कहा है, उसको स्मृति कहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जैसा वेद से प्रयोजन सिद्ध होता है, वैसे अन्य अच्छे पुस्तकों से भी होता है, परन्तु- या वेदबाह्याःस्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।
सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हिताः स्मृताः।। – (म. १२/९५) जो वेद के बाहर वेद के अनुकूल नहीं, जो कुदृष्टि हैं, वह त्याज्य हैं, क्योंकि तमोनिष्ट है और तमोगुण का ज्ञान अल्प होता है, पूर्ण नहीं होता इसलिये वेद से अतिरिक्त पुस्तक जिनमें बड़ी-बड़ी विद्या की बातें भी हैं, वह उत्तम व ग्राह्य होने पर भी निर्भ्रान्त नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्य की बनाई होने से तमोगुण के लेश करके कभी पूर्ण नहीं हो सकती। यही कारण है कि साम्प्रत में साइन्स के नियम भी स्थायी नहीं होने पाते। जैसे पहिले तत्त्व ऐलीमैन्ट थोड़े माने जाते थे, अब बहुत सिद्ध हो गये हैं, आगे प्रतिदिन नूतन आविष्कार होते रहते हैं, फिर उन पुस्तक जिनमें अयुक्त बहुत बातें हैं, पुराण, कुरान, बाइबिल आदि क्योंकर वेद हो सकते हैं? सम्प्रदायी मतवादी लोगों का नियम है कि उनके अगुए-गुरु ने जो वाक्य कह दिये, फिर जो उनके पुस्तक में लिखे गये, वह उनके लिये प्रमाण हो जाते हैं, फिर यह नहीं सोचते कि वे वाक्य प्रमाण के प्रमाणानुकूल हैं वा नहीं? इस कारण मतवाद का झगड़ा प्रतिदिन बढ़ता जाता है। निपटारा नहीं होने पाता, परन्तु वेद ऐसा नहीं, किन्तु गौतमजी लिखते हैं कि- प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि (१/१/३) आप्तोपदेशसामर्थ्याच्छब्दार्थ सम्प्रत्ययः (२/१/५२) आप्तोपदेशः शब्दः (१/१/८) आप्तःखलुसाक्षात् कृतधर्म्मा।
संसार की सब वस्तु प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द से सिद्ध होती हैं। इसको प्रमाण कहते हैं। आप्त का उपदेश शब्द हैं, क्योंकि उसके कहने से अर्थज्ञान हो जाता है। वह क्यों, इस पर वात्स्यायनाचार्य्य लिखते हैं कि जिसने जिस पदार्थ को साक्षात् कर लिया हो, उसको वैसा कहे यह उपदेश उसका शब्द है। ऐसा ही ऋषि आर्य्य और म्लेच्छों का व्यवहार सिद्ध समान लक्षण है। और- श्रुतिप्रामाण्याच (३/१/२९) इस सूत्र से जतलाया है कि उक्त शब्द को श्रुति वेद कहते हैं, वह प्रमाण है। इस सूत्र के भाष्य से उद्बोध होता है कि ऋषि लोग वेद की बात को पदार्थ विद्या सिद्ध मानते थे।
सूर्य्यन्ते चक्षुर्गच्छतां पृथिवीन्ते चक्षुरिति सूर्य्य में नेत्र और पृथिवी में शरीर लय होता है, अर्थात् कारण में कार्य्य का लय होना और कारण में कार्य्य का होना सिद्ध होता है। फिर ऐसी पुस्तक जिनमें लिखा हो कि श्रीकृष्ण जी का शरीर दग्ध होकर पृथिवी आदि को प्राप्त नहीं हुआ और पितृवीर्य्य के बिना मसीह को पैदा होना लिखा है वह कैसे प्रामाण्य हो सकती है। इस पर कह सकेंगे कि वेद में भी ऐसी अनेका गाथाएँ हैं, क्योंकि महीधर आदि ने वेद के वैसे अर्थ किये हैं, परन्तु उनको यह नहीं सूझता कि महीधर आदि का अर्थ क्योंकर प्रमाण हो सकता है, जब उनका अर्थ प्रमाण विरुद्ध है, क्योंकि मनुजी लिखते हैं कि- आर्षधर्म्मोपदेशश्च वेदशास्त्रीविरोधिना। यस्तर्केणनुसन्धत्ते स धर्म्मो वेदनेतरः।। – (म. १२/१०९) ऋष्युक्त धर्म्मोपदेश जो वेदशास्त्र के प्रतिकूल न हो, युक्ति से सिद्ध हो वह धर्म है, दूसरा नहीं।
इससे साफ है कि वेद में युक्ति को विचारना पड़ता है और उसके अर्थ करनेवाले के कथन अथवा किसी स्वतंत्र ग्रन्थ बनाने वाले की स्वतंत्र पुस्तक में वही बात मानने के योग्य होती जो युक्ति से सिद्ध होगी, फिर क्योंकर उन महीधरादि के वेदार्थ का आश्रय लेकर वेद में असंघटित बातों का सत्व मान सकते हैं? देखिये आगे मीमांसा क्या कहता है।।