भगवान का वास

तू खोज रहा वन – कुंजन में ,
भगवान् बसा तेरे मन में .
तू जाता है काबा – काशी ,
वह तो है घट – घट का वासी .
पूजा

तू जाता है मथुरा – प्रयाग ,
और ढूँढता है वृन्दावन में .
मंदिर – मस्जिद क्या गुरुद्वारा ,
क्या गिरजाघर या नाथद्वारा .

तू भटक रहा है यहाँ – वहाँ ,
अरे देख उसे अंतर्मन में .
कवि की कविता में छंद वही ,
फूलों में हैं मकरंद वही .

कलियों की चितवन में वो बसा ,
बसता भारमारों के गुंजन में .
बंशी की मधुरिम तानों में ,
भोले शिशु की मुस्कानों में .

वर्षा की रिमझिम बूँदों में ,
वो बसा विद्युत् की तदपन में .
कोयल की मधुर कूक में वो ,
बिरही पपीहा की हूक में वो .

चिड़ियों के कलरव में हैं वही ,
बसता मयूर की थिरकन में .
कहीं राम बना तो कहीं रहीम ,
कहीं जीसस है तो कहीं करीम .

तू महल – अटारी निरख रहा ,
वो बसा दिनों के क्रंदन में .
सागर तल की गहराई में ,
गिरी शिखरों की उचांई में .

तू उस विराट को देख ,मनुज ,
धरती के कण कण में .
तू खोज रहा वन -कुंजन में ,
भगवान् बसा तेरे मन में .

– कालिंदी त्रिवेदी

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