वन में एक घनी झुरमुट थी, जिसके भीतर जाकर,
खरहा एक रहा करता था, सबकी आँख बचाकर।
फुदक-फुदक फुनगियाँ घास की,चुन-चुन कर खाता था
देख किसी दुश्मन को, झट झाड़ी में छुप जाता था ।
एक रोज़ आया उस वन में, कुत्ता एक शिकारी,
जीवन का भेद
लगा सूँघने घूम-घूम कर, वन की झाड़ी-झाड़ी ।
आख़िर वह झाड़ी भी आयी, जो खरहे का घर थी
मग़र ख़ैर उस बेचारे की लम्बी अभी उमर थी ।
कुत्ते की जो लगी साँस , खरहा सोते से जागा,
देख काल को खड़ा पीठ पर, जान बचाकर भागा ।
झपटा पंजा तान, मगर खरहे को पकड़ न पाकर,
पीछे-पीछे दौड़ पड़ा कुत्ता भी जान लगा कर ।
चार मिनट तक खुले खेत में रही दौड़ यह जारी,
किन्तु तभी आ गयी सामने, घनी कँटीली झाड़ी।
भर कर एक छलाँग खो गया, खरहा बीहड़ वन में,
इधर-उधर कुछ सूँघ फिरा, कुत्ता निराश हो वन में ।
एक लोमड़ी देख रही थी, यह सब खड़ी किनारे ,
कुत्ते से बोली “मामा तुम तो खरहे से हारे ।
इतनी लम्बी देह लिये हो, फिर भी थक जाते हो
वन के छोटे जीव-जन्तु को भी न पकड़ पाते हो.”
कुत्ता हँसा – “अरी सयानी ! तू नाहक बकती है,
इसमें है जो भेद, उसे तू नहीं समझ सकती है।
मैं तो केवल दौड़ रहा था, अपना भोजन पाने,
लेकिन खरहा भाग रहा था अपनी जान बचाने।
कहते हैं सब शास्त्र, कमाओ रोटी जान लगा कर
पर संकट में प्राण बचाओ, सारी शक्ति लगाकर।”
– रामधारी सिंह दिनकर